कान्हा के प्रेम की अद्भुत कथा
(((( माँ-बाबा मुझको भूख लगी है ))))
एक गांव में सुन्दर और उसकी पत्नी लीला नामक एक निर्धन जुलाहा दम्पत्ति रहता था।
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दोनों पति-पत्नी सारा दिन परिश्रम करते सुन्दर-सुन्दर कपड़े बनाते, किन्तु उनको उनके बनाए वस्त्रों की अधिक कीमत नहीं मिल पाती थी।
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दोनों ही अत्यन्त संतोषी स्वाभाव के थे जो मिलता उसी से संतुष्ट हो कर एक टूटी-फूटी झोपडी में रहकर अपना जीवन-निर्वाह कर लेते थे।
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वह दोनों भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त थे, दिन भर के परिश्रम के बाद जो भी समय मिलता उसे दोनों भगवान के भजन-कीर्तन में व्यतीत करते।
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सुन्दर बाबा के पास एक तानपुरा और एक खड़ताल थी, जब दोनों मिलकर भजन गाते तो सुन्दर तानपुरा बजाता और लीला खड़ताल, फिर तो दोनों भगवान के भजन के ऐसा खो जाते की उनको अपनी भूख-प्यास की चिंता भी नहीं रहती थे।
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यूं तो दोनों संतोषी स्वाभाव के थे, अपनी दीन-हीन अवस्था के लिए उन्होंने कभी भगवान् को भी कोई उल्हाना नही दिया और अपने इसी जीवन में प्रसन्न थे किन्तु ...
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एक दुःख उनको सदा कचोटता रहता था, उनके कोई संतान नहीं थी। इसको लेकर वह सदा चिंतित रहा करते थे, किन्तु रहते थे फिर भी सदा भगवान में मग्न, इसको भी उन्होंने भगवान की लीला समझ कर स्वीकार कर लिया और निष्काम रूप से श्री कृष्ण के प्रेम-भक्ति में डूबे रहते।
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जब उनकी आयु अधिक होने लगी तो एक दिन लीला ने सुन्दर से कहा कि हमारी कोई संतान नहीं है, कहते है की संतान के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती, अब हमारी आयु भी अधिक को चली है, ना जाने कब बुलावा आ जाए, मरने की बाद कौन हमारी चिता को अग्नि देगा और कौन हमारे लिए तर्पण आदि का कार्य करेगा, कैसे हमारी मुक्ति होगी।
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सुन्दर बोला तू क्यों चिंता करती है, ठाकुर जी है ना वही सब देखेंगे। सुन्दर ने यह बात कह तो दी किन्तु वह भी चिंता में डूब गया,
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तभी उसके मन में एक विचार आया वह नगर में गया और श्री कृष्ण के बाल गोपाल रूप की एक प्रतीमा ले आया। घर आ कर बोला अब तुझे चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है में यह बाल गोपाल लेकर आया हूँ,
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हमारे कोई संतान नहीं तो वह भी इन्ही की तो लीला है, हम इनको ही अपने पुत्र की सामान प्रेम करेंगे, यही हमारे पुत्र का दायित्व पूर्ण करेंगे यही हमारी मुक्ति करेंगे।
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सुन्दर की बात सुन कर लीला अत्यंत प्रसन्न हुई, उसने बाल गोपाल को लेकर अपने हृदय से लगा लिया और बोली आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, आज से यही हमारा लल्ला है।
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दोनों पति-पत्नी ने घर में एक कोना साफ़ करके वहां के स्थान बनाया और एक चौकी लगा कर उसपर बाल गोपाल को विराजित कर दिया।
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तब से जुलाहा दंपत्ति का नियम हो गया वह प्रतिदिन बाल गोपाल को स्नान कराते उनको धुले वस्त्र पहनाते अपनी संतान की तरह उनको लाड-लडाते, उन्ही के सामने बैठ कर भजन कीर्तन करते और वहीं सो जाते। .
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जुलाहा अपने हाथ से बाल गोपाल के लिए सुन्दर वस्त्र बनाता और उनको पहनता इसमें उसको बड़ा आनदं आता। धीरे-धीरे दोनों बाल गोपाल को अपनी संतान के सामान ही प्रेम करने लगे।
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लीला का नियम था की वह प्रति दिन अपने हाथ से अपने लल्ला को भोजन कराती तब स्वयं भोजन करती, लल्ला को भोजन कराते समय उसको ऐसा ही प्रतीत होता मानो अपने पुत्र को ही भोजन करा रही हो।
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उन दोनों के निश्चल प्रेम को देख कर करुणा निधान भगवान् अत्यन्त्त प्रसन्न हुए और उन्होंने अदृश्य रूप में आकर स्वयं भोजन खाना आरम्भ कर दिया,
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लीला जब प्रेम पूर्वक बाल गोपाल को भोजन कराती तो भगवान् को प्रतीत होता मानो वह अपनी माँ के हाथो से भोजन कर रहें हैं, उनको लीला के हाथ से प्रेम पूर्वक मिलने वाले हर कौर में माँ का प्रेम प्राप्त होता था,
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लीलाधारी भगवान श्री कृष्ण स्वयं माँ की उस प्रेम लीला के वशीभूत हो गए। किन्तु लीला कभी नहीं जान पाई कि स्वयं बाल-गोपाल उसके हाथ से भोजन करते हैं।
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एक दिन कार्य बहुत अधिक होने के कारण लीला बाल गोपाल को भोजन कराना भूल गई।
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गर्मी का समय था भरी दोपहरी में दोनों पति-पत्नी कार्य करते-करते थक गए और बिना भोजन किए ही सो गए, उनको सोए हुए कुछ ही देर हुई थी कि उनको एक आवाज सुनाई दी.. माँ-बाबा मुझको भूख लगी है
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दोनों हड़बड़ा कर उठ गए, चारो और देखा आवाज कहाँ से आई है, किन्तु कुछ दिखाई नहीं दिया।
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तभी लीला को स्मरण हुआ की उसने अपने लल्ला को भोजन नहीं कराया, वह दौड़ कर लल्ला के पास पहुंची तो देखा की बाल गोपाल का मुख कुम्हलाया हुआ है,
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इतना देखते ही दोनों पति-पत्नी वहीं उनके चरणो में गिर पड़े, दोनों की आँखों से आसुओं की धार बह निकली,
. किन्तु उन दोनों का ध्यान तो श्रीहरि में रम चुका था उनको नही पता कि कोई आया भी है, नियत समय पर एक चमत्कार हुआ जुलाहे की झोपड़ी एक तीर्व और आलौकिक प्रकाश से भर गयी।
वहां उपस्थित समस्त लोगो की आँखे बंद हो गई, किसी को कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था, कुछ लोग तो झोपडी से बाहर आ गए कुछ वही धरती पर बैठ गए।
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श्री हरी आपने दिव्य चतर्भुज रूप में प्रकट हुए, उनकी अप्रितम शोभा समस्त सृष्टि को आलौकित करने वाली थी, वातावरण में एक दिव्य सुगंध भर गई,
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अपनी मंद-मंद मुस्कान से अपने उन भक्त माता-पिता की और देखते रहे, उनका यह दिव्य रूप देख कर दोनों वृद्ध अत्यंत आनंदित हुए,
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अपने दिव्य दर्शनों से दोनों को तृप्त करने के बाद करुणा निधान, लीलाधारी, समस्त सृष्टि के पालन हार श्री हरी, वही उन दोनों के निकट धरती पर ही उनके सिरहाने बैठ गए,
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भगवान् ने उन दोनों भक्तों का सर अपनी गोद में रखा, उनके शीश पर प्रेम पूर्वक अपना हाथ रखा, तत्पश्चात अपने हाथो से उनके नेत्र बंद कर दिए,
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तत्काल ही दोनों के प्राण निकल कर श्री हरी में विलीन हो गए, पंचभूतों से बना शरीर पंच भूतो में विलीन हो गया।
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कुछ समय बाद जब वह दिव्य प्रकाश का लोप हुआ तो सभी उपस्थित ग्रामीणो ने देखा की वहां ना तो सुन्दर था, ना ही लीला थी और ना ही बाल गोपाल थे।
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शेष थे तो मात्र कुछ पुष्प जो धरती पर पड़े थे और एक दिव्य सुगंध जो वातावरण में चहुं और फैली थी। विस्मित ग्रामीणो ने श्रद्धा से उस धरती को नमन किया,
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उन पुष्पों को उठा कर शीश से लगाया तथा सुंदर, लीला की भक्ति और गोविन्द के नाम का गुणगान करते हुए चल दिए उन पुष्पों के श्री गंगा जी में विसर्जित करने के लिए।
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मित्रो...भक्त वह है जो एक क्षण के लिए भी विभक्त नहीं होता, अर्थात जिसका चित्त ईश्वर में अखंड बना रहे वह भक्त कहलाता है। सरल शब्दों में भक्ति के अंतिम चरण का अनुभव करने वाले को भक्त कहते हैं ।